इन् सभी राजकुमारियों का उल्लेख विष्णु पुराण और हरिवम्सा में विद्यमान है. जहाँ एक ओर मंदिर मे कृष्ण को एक युवा चरवाहे के रूप में उनकी प्रियसी राधा के साथ पूजा जाता है। वहीं दूसरी ओर यमुना नदी की देवी कालिंदी की स्वतंत्र रूप से पूजा की जाती है। श्री कृष्ण की आठ पत्नियों में से केवल रुक्मिणी और सत्यभामा को ही, द्वारकाधीश कृष्ण की पूजा करने का सौभाग्य प्राप्त था।
श्रीकृष्ण की पहली पटरानी थी रुक्मिणी
रुक्मिणी को भाग्य की देवी लक्ष्मी का अवतार भी माना जाता है. महाभारत के अनुसार रुक्मिणी विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री थी। रुक्मिणी सर्वगुण संपन्न तथा अति सुन्दर थी। उसके शरीर में लक्ष्मी के शरीर के समान ही लक्षण थे अतः लोग उसे लक्ष्मीस्वरूपा कहते थे।
राजा भीष्मक के पास जो भी लोग आते-जाते थे, वे सभी श्रीकृष्ण की प्रशंसा किया करते थे। श्रीकृष्ण के गुणों और उनकी सुंदरता की प्रशंसा पर मुग्ध होकर रुक्मिणी ने मन ही मन तय कर लिया था कि वह श्रीकृष्ण को छोड़कर अन्य किसी भी पुरुष को पति रूप में स्वीकार नहीं करेगी। उधर, श्रीकृष्ण को इस बात का पता हो चुका था कि रुक्मिणी परम रूपवती होने के साथ-साथ सुलक्षणा भी है।
भीष्मक का बड़ा पुत्र रुक्मी, भगवान श्रीकृष्ण से शत्रुता रखता था अतः वह बहन रुकमणी का विवाह चेडी के राजकुमार और कृष्ण के चचेरे भाई शिशुपाल से कराना चाहता था। भीष्मक ने अपने बड़े पुत्र की इच्छानुसार रुकमणी का विवाह शिशुपाल के साथ करने का निश्चय किया। शिशुपाल के पास संदेश भेजकर विवाह की तिथि भी निश्चित कर दी गई।
जब रुकमणी को इस बात का पता लगा कि उसका विवाह शिशुपाल के साथ निश्चित हुआ है तो वह अत्यंत दु:खी हुई। उसने अपना निश्चय प्रकट करने के लिए एक ब्राह्मण के हाथों द्वारकाधीश कृष्ण के पास यह संदेश भेजा।
'हे देवकी-नंदन! मैंने केवल आपको ही पति रूप में वरण किया है। मैं आपको छोड़कर किसी अन्य पुरुष के साथ विवाह नहीं कर सकती। मेरे पिता मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरा विवाह शिशुपाल के साथ करना चाहते हैं। विवाह की तिथि भी निश्चित हो गई है। मेरे कुल की रीति है कि विवाह के पूर्व, होने वाली वधु को, नगर के बाहर मंदिर में, माँ गिरिजा का दर्शन करने के लिए जाना पड़ता है। मैं भी विवाह के वस्त्रों में सज-धज कर दर्शन करने के लिए गिरिजा मंदिर जाऊंगी।
मैं चाहती हूं, मेरे रिश्तेदारों का रक्तपात बचाने के लिए आप गिरिजा मंदिर आएं और मुझे पत्नी रूप में स्वीकार कर ले जाएं। यदि आप नहीं पहुंचेंगे तो, मैं अपने प्राणों का परित्याग कर दूंगी।'
रुकमणी का संदेश पाकर भगवान श्रीकृष्ण रथ पर सवार होकर शीघ्र ही कुण्डिनपुर की ओर चल दिए। उन्होंने रुकमणी के दूत ब्राह्मण को भी रथ पर बिठा लिया था। श्रीकृष्ण के चले जाने पर बलराम को ये पता चला और वे यह सोचकर चिंतित हो उठे कि श्रीकृष्ण अकेले ही कुण्डिनपुर गए हैं, जो सुरक्षा की दृष्टि से ठीक नहीं है । अतः वे भी यादवों की सेना के साथ कुण्डिनपर के लिए चल पड़े।
उधर, रुक्मी ने पहले ही शिशुपाल के पास संदेश भेज दिया था। तदनुसार शिशुपाल निश्चित तिथि पर बहुत बड़ी बारात लेकर कुण्डिनपुर जा पहुंचा। बारात क्या थी, पूरी सेना थी। शिशुपाल की उस बारात में जरासंध, पौण्ड्रक, शाल्व और वक्रनेत्र आदि राजा भी अपनी-अपनी सेना के साथ थे। ये सभी राजा कृष्ण से शत्रुता रखते थे। विवाह का दिन था। सारा नगर सज्जित था। मंगल वाद्य बज रहे थे और मंगल गीत गाए जा रहे थे। पूरे नगर में चहल-पहल थी। नगरवासियों को जब इस बात का पता चला कि श्रीकृष्ण और बलराम भी नगर में आए हुए हैं, तो वे बड़े प्रसन्न हुए। वे मन-ही मन सोचने लगे, कितना अच्छा हो यदि रुकमणी का विवाह श्रीकृष्ण के साथ हो, क्योंकि वे ही उसके लिए योग्य वर हैं।
सन्ध्या का समय था। रुकमणी विवाह के वस्त्रों में सज-धजकर भगवान शिव की पत्नी देवी गिरिजा के मंदिर की ओर चल पड़ी। उसके साथ उसकी सहेलियां और अंगरक्षक भी थे। वह अत्यधिक उदास और चिंतित थी, क्योंकि जिस ब्राह्मण को उसने श्रीकृष्ण के पास भेजा था, वह अभी लौटकर उसके पास नहीं पहुंचा था। रुकमणी ने माँ गिरिजा की पूजा करते हुए उनसे प्रार्थना की "हे माँ मेरी अभिलाषा पूर्ण करो, मैं श्रीकृष्ण को छोड़कर किसी अन्य पुरुष के साथ विवाह नहीं करना चाहती।"
रुकमणी जब मंदिर से बाहर निकली तो उसे वह ब्राह्मण दिखाई पड़ा। यद्यपि ब्राह्मण ने रुकमणी से अभी कुछ कहा नहीं था, किंतु रुकमणी को यह समझने में संशय नहीं रहा कि श्रीकृष्ण ने उसके समर्पण को स्वीकार कर लिया है। जल्द ही ब्राह्मण दूत ने आकर सूचित किया कि श्रीकृष्ण ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया है। जैसे ही वह बाहर निकली, उसने कृष्ण को देखा और भाव विभोर हो गई तभी श्री कृष्णा ने रुकमणी का हाथ खींचकर उसे अपने रथ पर बिठा लिया. रथ पे सवार हो रुकमणी अत्यंत प्रफुल्लित थी. रथ तीव्र गति से द्वारका की ओर चल पड़ा। क्षण भर में ही संपूर्ण कुण्डिनपुर में बात फैल गई कि श्रीकृष्ण रुकमणी का हरण करके उसे द्वारकापुरी ले गए।
शिशुपाल के कानों में जब यह समाचार पहुंचा तो वह क्रुद्ध हो उठा। उसने अपने मित्र राजाओं और उनकी सेनाओं के साथ श्रीकृष्ण का पीछा किया, किंतु बीच में ही बलराम और यदुवंशियों ने शिशुपाल आदि को रोक लिया। भयंकर युद्ध हुआ। बलराम और यदुवंशियों ने बड़ी वीरता के साथ लड़कर शिशुपाल आदि की सेना को नष्ट कर दिया।
फलतः शिशुपाल आदि निराश होकर कुण्डिनपुर से चले गए। रुक्मी यह सुनकर क्रोध से कांप उठा। उसने बहुत बड़ी सेना लेकर श्रीकृष्ण का पीछा किया। उसने यह प्रतिज्ञा की कि वह या तो श्रीकृष्ण को बंदी बनाकर लौटेगा या फिर कुण्डिनपुर में अपना मुंह नहीं दिखाएगा। रुक्मी और श्रीकृष्ण का घनघोर युद्ध हुआ। श्रीकृष्ण ने उसे युद्ध में हराकर अपने रथ से बांध दिया, जब कृष्ण उसे मारने वाले थे, रुक्मिणी कृष्ण के चरणों में गिर गईं और विनती की कि उनके भाई का जीवन बक्श दिया जाए। तब बलराम ने भी श्रीकृष्ण से कहा- "रुक्मी अब अपना संबंधी हो गया है। किसी संबंधी को इस तरह का दंड देना उचित नहीं है। उदार ह्रदय कृष्ण सहमत हुए, लेकिन दण्ड के रूप में, रुक्मी के सिर के बाल काट लिए और फिर उसे आज़ाद कर दिया। रुक्मी अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार पुनः लौटकर कुण्डिनपुर नहीं गया। वह एक नया नगर बसाकर वहीं रहने लगा।
द्वारका में, कृष्ण और रुक्मिणी का बड़े ही धूमधाम और समारोह के साथ स्वागत किया गया। जहां, भगवान श्रीकृष्ण ने रुकमणी के साथ विधिवत विवाह किया। समर्पित पत्नी रुक्मिणी की श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति और विनम्रता, उसकी सुंदरता को पूर्ण करती थी।
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